સપ્ટેમ્બર મહિનો એટલે મારાં અતિ પ્રિય હિંદી હાસ્યલેખક શરદ જોશીની વિદાયનો મહિનો. મૃત્યુ પામવાની ના કહેવાય એવી ૬૦ વર્ષની ઉંમરે બરાબર ૨૦ વર્ષ પહેલાના / ૧૯૯૧ના શિક્ષક દિને એમણે વિદાય લીધી , એ પહેલા એમની સાથે ગાઢ સંબંધ બંધાઈ ચુક્યો હતો. આજે હોત તો રાજકારણીઓ માટે સહજ એવા આઠ દાયકા પૂરા કર્યા હોત !
એ રીલેશન હતું જીવનમાં નવા નવા પ્રવેશેલા ટેલીવિઝનનું ! દૂરદર્શનના એ એકચક્રી સામ્રાજ્યમાં પહેલી સુપરહિટ કોમેડી સિરિયલ એટલે ‘યે જો હૈ જીન્દગી’. ટીવી એટલે જ ‘હમ લોગ’ અને ‘યે જો હૈ જીન્દગી’. એ ફેફસાફાડ હાસ્ય ધારાવાહિકના લેખક એટલે શરદબાબુ. મીન્સ, જોશીદા. નામથી ગુજરાતી લાગે એવા. (ગુજરાતીના અનેક વ્યંગકારોએ શરદ જોશી પાસેથી ઘણું ઘણું લીધું છે. એકલવ્યની અદામાં કે પછી દલા તરવાડીની – એ વાત અત્યારે રહેવા દઈએ :P)
કોલેજકાળમાં પુસ્તકમેળામાંથી એમના પુસ્તકો હાથ લાગતા જાણે ખોવાયેલો ખજાનો સાંપડ્યો ! માત્ર હાસ્ય જ નહિ, સાહિત્યની ઊંડી સુઝ, સાંપ્રત બનાવોની બરાબર ખબર, આધુનિક મિજાજનું ખેલદિલ ખુલ્લાપણું અને સદાબહાર વેધક નિરીક્ષણનું એમનામાં પરફેક્ટ કોમ્બિનેશન. આજે ય ‘લાપતાગંજ’ જેવી સીરીયલ્સમાં એની પરખ થઇ જ ગઈ ને!
મારાં લેખોમાં શરદ જોશીને અવારનવાર ટાંકતો રહું છું. એમ જ ફ્રેશ થવા ય આ બારમાસી ‘શરદઋતુ’ની લહેરખીઓમાં વહેતો રહું. એમના પર લેખ લખવો છે, લખી શક્યો નથી. ક્યા ભૂલું , ક્યાં યાદ કરું – એવો હાલ થાય છે. એટલે અત્યારે તો સિર્ફ અમૃત ચખનાની વિધિ કરીએ, વિદાયના બે દસકાની સલામીરૂપે. એક જમાનામાં સાવ સરળ ગણાતું એમનું હિંદી આજે જરાક અઘરું યુવાદોસ્તોને લાગે ય ખરું. એવી ‘આલોચના’ ધ્યાનમાં રાખીને જ આ અંશ “મૈં, મૈં ઔર કેવલ મૈં’ (વાણી પ્રકાશન) પુસ્તકનો અહીં શેર કરું છું.
આવું કરવાના હેતુ બે. એક તો સોશ્યલ નેટવર્કિંગની આ વિસ્તરતી દુનિયામાં કોઈ સર્જન વિના પણ વિવેચન કરવા મંગતા સિનિક ક્રિટીકસ પર ખડખડાટ હસવા મળે (પરિવેશ ફર્યો છે, ભાવાવેશ નહિ!)…અને બીજો, શરદ જોશીને આ સ્વાદ ચાખ્યા પછી વધુ વાંચવાનું મન થાય…બીલીવ મી, આથી અનેકગણું સુંદર હાસ્ય એમણે ભરપુર ક્વોલીટી અને ક્વોન્ટીટીમાં લખ્યું છે.
સાહિત્યની પાના પાછળની દુનિયાના રસિકોને વધુ ગમે તેવી, ‘કમલમુખ’ નામના આ સ્વનામધન્ય વિવેચક-સાહિત્યશિરોમણીના પાત્રના મુખે કહેવાયેલી આ માર્મિક વાતો આસપાસના આવા નજદીકી કેરેક્ટર યાદ કરી વાંચશો, તો જરુર સુખ આપશે ! 🙂
“लेखक विद्वान हो न हो, आलोचक सदैव विद्वान होता है. विद्वान प्रायः भौंडी बेतुकी बात कह बैठता है. ऐसी बातों से साहित्य में स्थापनाएँ होती हैं. उस स्थापना की सड़ाँध से वातावरण बनता है जिसमें कविताएँ पनपती हैं. सो, कुछ भी कहो, आलोचक आदमी काम का है.” आज से आठ वर्ष पूर्व आलोचना पर अपने मित्रों के समूह में बोलते हुए यह विचार मैंने प्रकट किए थे. वे पत्थर की लकीर हैं. लेखक का साहित्य के विकास में महत्व है या नहीं है यह विवादास्पद विषय हो सकता है पर किसी साहित्यिक के विकास में किसी आलोचक का महत्व सर्वस्वीकृत है. साहित्य की वैतरणी तरना हो तो किसी आलोचक गैया की पूंछ पकड़ो, फिर सींग चलाने का काम उसका और यश बटोरने का काम कमलमुख का.
आलोचना के प्रति अपनी प्राइवेट राय जाहिर करने के पूर्व मैं आपको यह बताऊं कि आलोचना है क्या? यह प्रश्न मुझसे अकसर पूछा जाता है. साहित्यरत्न की छात्राएँ चूंकि आलोचना समझने को सबसे ज्यादा उत्सुक दिखाई देती हैं इसलिए यह मानना गलत न होगा कि आलोचना साहित्य की सबसे टेढ़ी खीर है. टेढ़ी खीर इसलिए कि मैं कभी इसका ठीक उत्तर नहीं दे पाता. मैं मुस्कराकर उन लड़कियों को कनखियों से देखकर कह देता हूँ, “यह किसी आलोचक से पूछिए, मैं तो कलाकार हूँ.”
खैर, विषय पर आ जाऊँ. आलोचना शब्द लुच् धातु से बना है जिसका अर्थ है देखना. लुच् धातु से ही बना है लुच्चा. आलोचक के स्थान पर आलुच्चा या सिर्फ लुच्चा शब्द हिन्दी में खप सकता है. मैंने एक बार खपाने की कोशिश भी की थी, एक सुप्रसिद्ध आलोचक महोदय को सभा में परिचित कराते समय पिछली जनवरी में वातावरण बहुत बिगड़ा. मुझे इस शब्द के पक्ष में भयंकर संघर्ष करना पड़ा. आलोचक महोदय ने कहा कि आप शब्द वापस लीजिए. जनता ने भी मुझे चारों ओर से घेर लिया. मुझे पहली बार यह अनुभव हुआ कि हिंदी भाषा में नया शब्द देना कितना खतरा मोल लेना है. मैंने कहा, मैं शब्द वापस लेता हूँ. पर आप यह भूलिए नहीं कि आलोचना शब्द ‘लुच’ धातु से बना है.
अस्तु, बात आई गई हो गई. मैंने इस विषय में सोचना और चर्चा करना बंद सा कर दिया. पर यह गुत्थी मन में हमेशा बनी रही कि आलोचक का दायित्व क्या है? वास्तव में साहित्य के विशाल गोदाम में घुसकर बेकार माल की छंटाई करना और अच्छे माल को शो-केस में रखवाना आलोचक का काम माना गया है, जिसे वह करता नहीं. वह इस चक्कर में रहता है कि अपने परिचितों और पंथ वालों का माल रहने दें, बाकी सबका फिंकवा दें. यह शुभ प्रवृत्ति है और आज नहीं तो कल इसके लाभ नजर आते हैं. कोशिश करते रहना समीक्षक का धर्म है. जैसे हिन्दी में अभी तक यह तय नहीं हो पाया है कि मैथिलीशरण गुप्त, निराला और कविवर कमलमुख में कौन सर्वश्रेष्ठ है. एक राष्ट्रकवि है. एक बहुप्रशंसित है और तीसरे से बड़ी-बड़ी आशाएँ हैं.
समीक्षकों के इस उत्तरदायित्वहीन मूड के बावजूद पिछला दशक हिन्दी आलोचना का स्वर्णयुग था. जितनी पुस्तकें प्रकाशित नहीं हुईं उनसे अधिक आलोचकों को सादर भेंट प्राप्त हुई हैं. कुछ पुस्तकों को संपूर्ण संस्करण ही आलोचकों को सादर भेंट करने में समाप्त हो गया. समीक्षा की नई भाषा, नई शैली का विकास पिछले दशक में हुआ है. (दशक की ही चर्चा कर रहा हूँ क्योंकि मेरे आलोचक व्यक्तित्व का कंटीला विकास भी इसी दशक में हुआ है). हिन्दी का मैदान उस समय तक सूना था जब तक आलोचना की इस खंजर शब्दावली का जन्म नहीं हुआ था. इस शब्दावली के विशेषज्ञों का प्रकाशक की दूकान पर बड़ा स्वागत होते देखा है. प्रकाशक आलोचक पालते हैं और यदि इस क्षेत्र में मेरा जरा भी नाम हुआ तो विश्वास रखिए, किसी प्रकाशक से मेरा लाभ का सिलसिला जम जाएगा.
मैंने अपने आलोचक जीवन के शैशव काल में कतिपय प्रचलित शब्दावली, मुहावरावली और वाक्यावली का अनूठा संकलन किया था जिसे आज भी जब-तब उपयोग करता रहता हूँ. किसी पुस्तक के समर्थन तथा विरोध में किस प्रकार के वाक्य लिखे जाने चाहिए, उसके कतिपय थर्ड क्लास नमूने उदाहरणार्थ यहां दे रहा हूँ. अच्छे उदाहरण इस कारण नहीं दे रहा हूँ कि हमारे अनेक समीक्षक उसका उपयोग शुरू कर देंगे.
समर्थन की बातें
इस दृष्टि से रचना बेजोड़ है (दृष्टि कोई भी हो). रचना में छुपा हुआ निष्कलुष वात्सल्य, निश्छल अभिव्यक्ति मन को छूती है.
छपाई, सफाई विशेष आकर्षक है.
रूप और भावों के साथ जो विचारों के प्रतीक उभरते हैं, उससे कवि की शक्ति व संभावनाओं के प्रति आस्था बनती है.
कमलमुख की कलम चूम लेने को जी चाहता है. (दत्तू पानवाला की, यह मेरे विषय में व्यक्त राय देते हुए संकोच उत्पन्न हो रहा है परंतु उनके विशेष आग्रह को टाल भी तो नहीं सकता).
मनोगुम्फ़ों की तहों में इतना गहरा घुसने वाला कलाकार हिन्दी उपन्यास ने दूसरा पैदा नहीं किया.
आपने प्रेमचंद की परंपरा को बढ़ाया है. मैं यदि यह कहूं कि आप दूसरे प्रेमचंद हैं तो गलती नहीं करता.
कहानी में संगीतात्मकता के कारण उसी आनंद की मधुर सृष्टि होती है जो गीतों में पत्रकारिता से हो सकती है.
विरोध की बातें
कविता न कहकर इसे असमर्थ गद्य कहना ठीक होगा. भावांकन में शून्यता है और भाषा बिखर गई है.
छपाई, सफाई तथा प्रूफ संबंधी इतनी भूलें खटकने वाली हैं.
लेख कोर्स के लिए लिखा लगता है.
रचना इस यशसिद्ध लेखक के प्रति हमें निराश करती है. ऐसी पुस्तक का अभाव जितना खटकता था, प्रकाशन उससे अधिक अखरता है.
संतुलन और संगठन के अभाव ने अच्छी भाषा के बावजूद रचना को घटिया बना दिया है.
लेखक त्रिशंकु-सा लगता है – आक्रोशजन्य विवेकशून्यता में हाथ पैर मारता हुआ.
इन निष्प्राण रचनाओं में कवि का निरा फ्रस्ट्रेशन उभरकर आ गया है.
पूर्वग्रह ग्रसित दृष्टिकोण, पस्तहिम्मत, प्रतिक्रियाग्रस्त की तड़पन व घृणा, शब्द चमत्कार से कागज काला करने की छिछली शक्ति का थोथा प्रदर्शन ही होता है इन कविताओं में.
स्वयं लेखक की दमित, कुंठित वासना की भोंडी अभिव्यक्ति यत्र तत्र ही नहीं, सर्वत्र है.
सामाजिकता से यह अनास्था लेखक को कहाँ ले जाएगी. जबकि मूल्य अधिक है पुस्तक का.
ये वे सरल लटके-खटके हैं जिनसे किसी पुस्तक को उछाला जा सकता है, गिराया जा सकता है.
आलोचना से महत्वपूर्ण प्रश्न है आलोचक व्यक्तित्व का. पुस्तक और उसका लेखक तो बहाना या माध्यम मात्र है जिसके सहारे आलोचक यश अर्जित करता है. प्रसिद्धि का पथ साफ खुला है. स्वयं पुस्तक लिखकर नाम कमाइए अथवा दूसरे की पुस्तक पर विचार व्यक्त कर नाम कमाइए. बल्कि कड़ी आलोचना करने से मौलिक लेखक से अधिक यश प्राप्त होता है.
इस संदर्भ में मुझे एक वार्तालाप याद आता है जो साहित्यरत्न की छात्रा और मेरे बीच हुआ था-
रात के दस बजे/गहरी ठंड/पार्क की बेंच/वह और मैं/तारों जड़ा आकाश/ घुप्प एकांत लुभावना.
वह- “आलोचना मेरी समझ में नहीं आती सर.”
मैं- “हाय सुलोचना, इसका अर्थ है तुझमें असीम प्रतिभा है. सृजन की प्रचुर शक्ति है. महान लेखकों को आलोचना कभी समझ में नहीं आती.”
वह- “आप आलोचना क्यों करते हैं?”
मैं- “और नहीं तो क्या करूं. दूसरे की आलोचना का पात्र बनने से बेहतर है मैं स्वयं आलोचक बन जाऊँ”
वह- “किसी की आलोचना करने से आपको क्या मिलता है?”
मैं- “उसकी पुस्तक”
कुछ देर चुप्पी रही.
वह- “सच कहें सर, आपको मेरे गले की कसम, झूठ बोलें तो मेरा मरा मुंह देखें. आलोचना का मापदंड क्या है? समीक्षक का उत्तरदायित्व आप कैसे निभाते हैं?”
उस रात सुलोचना के कोमल हाथ अपने हाथों में ले पाए बिना भी मैंने सच-सच कह दिया- “सुलोचना! आलोचना का मापदंड परिस्थितियों के साथ बदलता है. समूचा हिन्दी जगत तीन भागों में बंटा है. मेरे मित्र, मेरे शत्रु और तीसरा वह भाग जो मेरे से अपरिचित है. सबसे बड़ा यही, तीसरा भाग है. यदि मित्र की पुस्तक हो तो उसके गुण गाने होते हैं. सुरक्षा करता हूँ. शत्रु की पुस्तक के लिए छीछालेदर की शब्दावली लेकर गिरा देता हूँ. और तीसरे वर्ग की पुस्तक बिना पढ़े ही, बिना आलोचना के निबटा देता हूँ या कभी-कभी कुछ सफे पढ़ लेता हूँ. अपने प्रकाशक ने यदि किसी लेखक की पुस्तक छापी हो तो उसकी प्रशंसा करनी होती है ताकि कुछ बिक विक जाए. जिस पत्रिका में आलोचना देनी हो उसके गुट का खयाल करना पड़ता है. रेडियो के प्रोड्यूसर, पत्रों के संपादक तथा हिन्दी विभाग के अध्यक्ष आलोचना के पात्र नहीं होते. सुलोचना, सच कहता हूँ, प्रयोगवादी धारा का अदना-सा उम्मीदवार हूँ. अतः हर प्रगतिशील बनने वाले लेखक के खिलाफ लिखना धर्म समझता हूँ. फिर भी मैं कुछ नहीं हूँ. मुश्किल से एक-दो पुस्तक साल में समीक्षार्थ मेरे पास आती है बस… बस इतना ही.”
(सुलोचना ने बाद में बताया उस रात मेरी आँखों में आंसू छलछला आए थे) 😛
અપડેટ : શરદ જોશીના મ્રત્યુ પછીના એક વર્ષ બાદ ખૂબસુરત અભિનેત્રી / વિદ્વાન અધ્યાપક પત્ની ઈરફાનાએ કહેલા સ્મરણો આ તસવીરોમાં વાંચી શકો છો (શરદ-ઈરફાનાની પુત્રી નેહા શરદ જાણીતી ટીવી અભિનેત્રી છે, અને શરદ જોશીએ ‘વિક્રમ ઔર વૈતાલ’થી ‘વાહ જનાબ’ સુધીનીદસેક સિરિયલ્સ અને ‘છોટી સી બાત’, ‘ઉત્સવ’ કે ‘દિલ હૈ કિ માનતા નહીં’ જેવી દસેક ફિલ્મોના સંવાદો /સ્ક્રિપ્ટ લખેલા એ જસ્ટ ઇન્ફો…)
Bhavin Badiyani
September 22, 2011 at 6:55 AM
THANX 🙂
LikeLike
pankajladanipankaj
September 22, 2011 at 8:11 AM
वास्तव में साहित्य के विशाल गोदाम में घुसकर बेकार माल की छंटाई करना और अच्छे माल को शो-केस में रखवाना आलोचक का काम माना गया है, जिसे वह करता
LikeLike
PARTH
September 22, 2011 at 10:12 AM
jay….reminding me Bakshiji’s view on “vivechan”
LikeLike
Tamanna shah
September 22, 2011 at 10:52 AM
cool..:)
LikeLike
vishal jethava
September 22, 2011 at 2:58 PM
katax::::“लेखक विद्वान हो न हो, आलोचक सदैव विद्वान होता है.
LikeLike
Envy
September 22, 2011 at 6:42 PM
અદ્ભુત અંજલિ શરદજીને, ધન્યવાદ
LikeLike
sunil
September 22, 2011 at 6:48 PM
was under Impression neha sharad is daughter of Marathi film actor Sharadd Joshi,but thanks to this article nowknow the truth enjoyed thanks,ghana e dala trvadi vedakrya hashe evu manu chu.
LikeLike
vaibhav kothari
September 22, 2011 at 8:11 PM
Reminded me of the absurd play, Waiting for Godot. In order to while away time, the two characters Didi and Gogo engage themselves in a game of hurling abuses at each other to decide who speaks the biggest swear word. One of them cries out, ‘ You Critic’! and the other one accepts being defeated by this epithet..- Vaibhav
LikeLike
siddarth
September 22, 2011 at 10:43 PM
શરદ જોશીનું ગુજરાતી વર્ઝન એટલે બકુલ ત્રિપાઠી.
LikeLike
Chintan Oza
September 23, 2011 at 1:40 AM
khub saras..:)
LikeLike